‘गलि गुलियां’ कहानी है एक ऐसे शख्स की जो तंग गलियों के एक मकान में रहता है। फिल्म डिस्टर्ब करती है, लेकिन पावरफुल साइकोलॉजिकल थ्रिलर है। फिल्म में हमारी मुलाकात होती है खड़ूस से जो एक छोटे से जर्जर मकान में रहता है और उसे देखकर ऐसा लगता है कि उसके दिमाग को जंग लग चुका है।
वो जिस इलाके में रहता है वहां तारों का जाल है, छोटे-छोटे बॉक्स हैं और इनके बीच में उसने सीसीटीवी कैमरे लगाए है। जिससे वो अपने घर में बैठकर पड़ोसियों पर नजर रखता है। खड़ूस अपने घर से कभी बाहर नहीं निकलता, उसका किसी से नाता नहीं रह गया है। उसके लिए उसका दोस्त (रणवीर शौरे) रोज खाना लेकर आता है।
एक दिन खड़ूस एक बच्चे की आवाज सुनता है। ऐसा लगता है कि उसे कोई बुरी तरह से पीट रहा हो। फिल्म का ये हिस्सा आपको डिस्टर्ब करता है। लेकिन ये सीन आपका ध्यान भी खींचता है।
इस बच्चे का नाम इद्दू (ओम सिंह) है। ये बच्चा अपनी मां (साधना गोस्वामी) से काफी प्यार करता है। लेकिन इसका पिता (नीरज काबी) एक कसाई है। और वो अपने 11 साल के बेटे को अपनी तरह बनाना चाहता है। उसे लगता है कि उसके बेटे को भी कसाईखाने की नजारे और आवाजों में खुद को डाल लेना चाहिए।
वो अपने बच्चे को जब मरे हुए जानवर और खून दिखाता है तो बार बार एक ही बात कहता है – धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी.
इद्दू को ये सब पसंद नहीं और वो इसका विरोध तो करता है। लेकिन कुछ बोल नहीं पाता। एक बार बुरी तरह पीटे जाने पर उसे लगता है कि वो घर छोड़कर भाग जाए। क्या इद्दू ही वही है जिसे बचाने की जरूरत है?
दीपेश जैन ने अपनी कहानी पर पूरी कमांड बना कर रखी है। खड़ूस और इद्दू दोनों ऐसे परिवार से हैं। जहां कुछ भी ठीक नहीं है। देखकर ऐसा लगता है कि जैसे दोनों अनाथ हैं।
पुरानी दिल्ली की तंग गलियों से ऐसा कैरेक्टर निकाला गया है, जिसकी मानसिक स्थिति सही नहीं है। दमघोंटू और अंधेरी गलियों को सिनेमेटोग्राफर ने काफी चालाकी के साथ पेश किया है।
गुली गुलियां’ की परफॉर्मेंस और कास्टिंग ने इसके सिनेमेटिक एक्सपीरियंस को काफी बेहतर किया है। मनोज वाजपेयी ने फिल्म में एक एक्टर की परिभाषा साबित कर दी है। फिल्म में मनोज की थकावट, झुके कंधे और बुझी हुई नजरों ने एक्टर और कैरेक्टर के फर्क को खत्म कर दिया है। अपने बच्चे और पत्नी का सताने वाले नीरज काबी भी आपको निराश नहीं करेंगे।
सहाना गोस्वामी ने अपनी संवेदना और छवि से अपने रोल में रंग भर दिया है। साथ ही छोटे स्टार ओम का भी बेहतरीन डेब्यू हुआ है। हालांकि ‘गली गुलियां’ सबके लिए नहीं है।
सहाना गोस्वामी ने अपनी संवेदना और छवि से अपने रोल में रंग भर दिया है। साथ ही छोटे स्टार ओम का भी बेहतरीन डेब्यू हुआ है। हालांकि ‘गली गुलियां’ सबके लिए नहीं है।
ये डिस्टर्ब करती है और ऐसी फिल्म नहीं कि लोग खिंचे हुए चले आएं। लेकिन बचपन की यातना और डर को साथ मिलाकर बेहतरीन तरीके से बुना हुआ है।
खड़ूस एक ऐसा आदमी है जो दुनिया से कट गया है। लेकिन उसकी मानवता उससे नहीं छूटती। ये देखना काफी दिलचस्प है।
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