यह फिल्म कोरियन फिल्म ब्लाइंड के हिंदी रिमेक है जो कि 2011 में आई थी सोनम कपूर की इससे पहले 2019 में रिलीज हुई फिल्म जोया फैक्टर में साउथ सिनेमा के स्टार दुलकर सलमान के साथ नजर आई थी यह फिल्म निर्देशक अभिषेक शर्मा द्वारा फिल्माया गया था फिल्म के लेखक और निर्देशक सोम मखीजा की कोरियाई फिल्म के रीमिक्स से बनी ब्लाइंड में शायद ही कोई बहुत ही आश्चर्यजनक तत्व हैं फिल्म में अपराध और थ्रिलर को एक पूर्वानुमेय तौर पर स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म पर नए लॉन्च के लिए ही स्थापित किया गया है, ऐसा लगता है कि केवल ओटीटी की लाइब्रेरी भरने की कोशिश की गई है।’ब्लाइंड’ फिल्म एक कोरियन फिल्म से ली गई है जो पहले ही तमिल में बन चुकी है, यह कहानी एक ट्रेलर के पैटर्न का अनुसरण करती है।

जहाँ एक पूर्व पुलिसकर्मी अपने ही राक्षसों से लड़ते हुए एक मनोरोगी का पीछा करता है।कहानी की शुरुआत ही एक सड़क दुर्घटना से होती है, क्योंकि श्रोत सामग्री एक कोरियन ट्रेलर से प्रेरित है तो इसमें कुछ हद तक खून खराबा तो होना ही चाहिए। शोम मखीजा एक ऐसे निर्देशक हैं जो कि अपने फिल्मों में जो सामान्य प्रारूप है, उसमें काफी अलग तरीके से बदलाव में विश्वास रखते हैं ना कि जैसा- तैसा दर्शकों के सामने परोस देते हैं।तो फिल्म की कहानी की शुरुआत ऐसे हैं कि स्कॉटलैंड की रहने वाली एक पुलिस ऑफिसर जिया सिंह जो कि अपने छोटे सौतेले भाई को कार में लेकर जाती हैंतभी एक अजीब कार दुर्घटना में अपने भाई और अपनी आंखों की रोशनी खोने के बाद निडर और हिम्मती लड़की जिया (सोनम कपूर) अपने आत्मविश्वास को जीवित रखने के लिए काफी संघर्ष करती हैं।
जिया को भगवान से ज्यादा अपने कुत्ते पर विश्वास रहता है जो कि उनका मार्गदर्शक है।एक रात घर वापस आते समय जिया टैक्सी का इंतजार करती है,तभी अनजाने में उसकी मुलाकात एक सीरियल किलर पूरब कोहली से होती है। वह उस समय तो बच जाती है, लेकिन पुलिस उसे चश्मदीद गवाह बनाने से इंकार कर देती है।
जासूस इंस्पेक्टर पृथ्वी खन्ना ( विनय पाठक )आता है ,जोकि धीरे-धीरे जिया की बातों और हो रहे अपराधों को महसूस करने की क्षमता पर विश्वास करता है।और अचानक एक गवाह निखिल (शुभम शराफ )सामने आ जाता है, तब एहसास होता है अब कुछ लड़ाई के दृश्य के बाद मामला जल्द ही सुलझ जाएगा।फिल्म में आने वाले मोड़ों को दूर से देखा जा सकता है, चिंतन अर्थात इमोशनल सीन काफी हद तक दिखावटी जैसे लगते हैं।
पटकथा और प्रदर्शन से अधिक यह ग्लासगो का ठंडा माहौल लगता है जिसे सिनेमैटोग्राफर गाइरिक सरकार ने काफी कुशलता से कैमरे में कैद किया है।फिल्म की रचनाएं काफी धीमी है, लेकिन पृष्ठभूमि स्कोर समय-समय पर अपनी उपस्थिति महसूस कराती है।गाइरिक सरकार की सिनेमैटोग्राफी कुछ ऐसी है जो किरदारों से कहीं ज्यादा कहानी के अनुरूप है।
उनके रंगों के पैलेट का चुनाव ऐसा है कि बहुत हिस्सों में नाटकीय लगता है। तनु प्रिया शर्मा का संपादन पटकथा की तरह ही निरस है,और इसके अलावा दर्शकों को इस बारे में अवगत कराने का ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया है कि पूरब कोहली का चरित्र वैसा क्यों है क्यों वह युवतियों का अपहरण करता है और उन्हें बड़ेअजीब तरीके से मौत की यातनाएं देकर मार रहा है। कुछ कुछ दृश्य और उच्चारण इतने अच्छे हैं कि जितनी तारीफ करो उतनी कम है ,जैसे पूरब कोहली का चरित्र ,जिया से कहता है मेरे दिमाग के अंधेरे में मत घुसो जिया,भटक जाओगी और वह जवाब देती हैं मैं तो अंधेरे में ही रहती हूं। फिल्म में संगीत के नाम पर सुरों को तवज्जो नहीं मिली है।ब्रेक के बाद सोनम एक ऐसे किरदार में आती हैं जो उन्हें अपने व्यक्तित्व में एक नई जटिल छाया का का पता लगाने के लिए प्रेरित करता है । यह भूमिका दर्शाती है कि अपने जीवंत पक्ष को ताक पर रखकर अपने भीतर एक दृढ़ योद्धा को ढूंढें। सोनम ने अपने किरदार को बखूबी निभाया है वरना कहानी में इतना दम नहीं था। सोनम कपूर ने पूरब कोहली द्वारा अभिनीत प्रतिपक्षी की नाटकीयता को काफी रोमांचक बनाया है। ओटीटी फिल्म के दौरान सोनम करीब 4 साल के बाद कमबैक ही हैं उन्होंने अपने लिए रीमेक के तौर पर एक सफल क्राइम थ्रिलर फिल्म की कहानी को चुना,जिसमें वह एक्शन करने वाली अंधी लड़की के किरदार में हैं।
लेकिन अफसोस इस बात का है कि इस क्राइम थ्रिलर में रहस्य और रोमांच टुकड़ों में बट गया। एक दृष्टिबाधित व्यक्ति की भूमिका काफी ईमानदारी और दृढ़ता के साथ निभाया है। लेकिन उनके उच्चारण में थोड़ा ध्यान भटकाने की छाया आती है, लेकिन उससे परेह देखेंगे तो उनके अभिनय से निराश नहीं होंगे। पुलिस इंस्पेक्टर पृथ्वी खन्ना के किरदार में विनय पाठक ने अपने अंदाज से अच्छा प्रदर्शन किया है, लेकिन उनके किरदार को अचानक खत्म कर दिया गया। सीरियल किलर की भूमिका में पूरब कोहली शुरुआत में थोड़ा सरप्राइस पैकेज की तरह लगे लेकिन बाद में ऐसा लगा कि उनका अधूरा सा किरदार था । फिल्म ने काफी अच्छा मोड़ लिया ही था कि फिल्म एक ऐसे मोड़ पर आकर खत्म हो गई जहां उपसंहार अधूरा सा दिखा। फिल्म की गहराई को थोड़ा और संजीदगी से समझने की जरूरत थी यह तभी संभव हो पाता जब स्क्रिप्ट की डिटेलिंग सही तरीके से हुई हो। मुझे फिल्म का ट्रेलर देखकर यही लगा कि फिल्म जबरदस्त होगी और निर्देशक इस पर कुछ और बनाएंगे, लेकिन दुख की बात यह है कि यह वही खत्म हो गया। अंत में एक जिया का ही किरदार ऐसा है जो यह सिद्धांत साबित करती है कि ऐसे शिकारी,अवसाद चिंता बचपन के आघात से पीड़ित होते हैं, इसलिए वे महिलाओं को कमजोर कड़ी समझकर उन पर अत्याचार करते हैं। फिल्म के निर्देशक चाहते तो और भी रचनात्मक तरीके से फिल्म को सुशोभित कर सकते थे लेकिन ,ऐसा कुछ दिखा नहीं।